भूख रोती है, तिलमिलाती है

भूख रोती है, तिलमिलाती है,
सूखे होंठों को ये जलाती है,
अपनी बेचैनी के सभी किस्से,
झांक कर आँखों से दिखाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।

कौन सा मजहब कौन सा रब है,
भूखा इंसान ये पूछता कब है,
है खबर उसको या बेखबर वो है,
पेट में जलती आग जाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।

गर्मियों के दिन खूब तपतें है,
रात सर्दी की कंपकंपाती है,
चार मौसम हैं झेल जातें हैं,
भूख लेकिन ले जान जाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।

अ सड़क मेरा आंशियाँ तू है,
रात और दिन के दरमियाँ तू है,
रंग है काला, पर मुझे तू ही,
रंग दुनिया के सब दिखाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।

हाथ खाली है और गला सुखा,
जाने कबसे है ये पड़ा भूखा,
लोग आते हैं लोग जाते हैं,
पर नज़र उस पर टिक न पाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।

रात के किस्से क्या सुनाऊ मैं,
इन अँधेरों में क्या दिखाऊ मैं,
पेट को दाबे अपने हाथों से,
नन्ही सी गुडिया सो ही जाती है।
भूख रोती है, तिलमिलाती है।।


तारीख: 02.07.2017                                    विजय यादव









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