नीड़ च्युत , अनिकेत बन ,
मैं विचरता हूँ गगन में ,
अब तनिक मैं चाहता विश्राम ,
चाहे नीम हो या आम II
शाख कोई एक सुदृढ़ ,
पर्ण -पुष्पों से सुसज्जित ,
जो दे सके मुझको तनिक आराम ,
चाहे नीम हो या आम II
जिसकी छाया के तले मैं ,
पा सकूँ कुछ पल सुकूं के,
छू सके न इस जहाँ के शीत -वर्षा-घाम ,
चाहे नीम हो या आम II
अब तलक तो इस जहाँ में,
मैं भटकता ही रहा था ,
लक्ष्य केवल पेट भरना , दूजा न कोई काम ,
चाहे नीम हो या आम II
ज़िंदगी को एक सीधी सरल रेखा मानता था ,
न पता था ज़िंदगी भी वणिकवृत्ति पालती है ,
देती नहीं कुछ पल ख़ुशी के ,बिन लिए पूरा दाम ,
चाहे नीम हो या आम II
न पता था विकट मोड़ों से बनी यह सरल रेखा ,
जिसके दोनों तरफ़ गहरे गर्त खोदे हैं सगो ने ,
मैं मस्त -मौला जी रहा था , प्रसन्न अपने धाम ,
चाहे नीम हो या आम II
आँधियों -तूफ़ान और गर्तों भरा
यह विकट जीवन ,
हौंसले को पस्त करती हुई आयी शाम ,
चाहे नीम हो या आम II
किन्तु जीवन में सदा
रहती नहीं खुशियाँ हमारे ,
न ही शाश्वत है यहाँ पर कोई काली शाम ,
चाहे नीम हो या आम II
तिनका -तिनका कर इकट्ठा ,
फ़िर नया निर्माण होगा ,
शाख कोई नवल पत्तों से भरी फ़िर से मिलेगी ,
चाहे नीम हो या आम II
किन्तु कंपन से कभी भयभीत होगा न मेरा मन ,
हार फ़ितरत में न मेरे , नष्ट होता सिर्फ़ तन ,
जीत सकता हूँ सभी कुछ , गर मैं छोड़ दूँ आराम ,
चाहे नीम हो या आम II