सजी संवरी इक दुल्हन
यादों को रही सहेज
थी समेटती खुद को खुद में,
कर पिया मिलन के सपनों का अभिषेक
दिप मालाएँ, हार पुष्प
कर रहे थे उसका मन चंदन
आने वाले कल के सपने, नव मात पिता, नव आवास
और उनके चरणों का वंदन
गीली नजर बचाता घूमें भाई
रही काट चिकोटी, सखी पुरानी
बना बहाने मां बाबा आ रहे
देखन अपनी परी स्यानी
मंगलगान फिर तेज गूंज उठे
हूई दरवाजे बारात आ खङी
अरमानों ने बांह पसारी
खिल उठी थी मन की मयुर पांखङी
हलवाई सब जांच रहा था
बाबा ने छप्पन भोग बनवाये थे
खुद को उन्होंने बेच दिया था
खेत के कागज तक रख आये थे
तभी अचानक बादल गरजे
मौसम के माथे पङी पेशानी
आशंका का साज बज उठा
वो समझ गयी, है कुछ परेशानी
ताल मृदंग सब शांत हो गये
शहनाई की गूंज रो पङी
मन में थामें कुछ अनहोनी
नवयौवना देखन को चल पङी
मंडप था खामोश सा बैठा
बाराती नजर छिपाते थे
बाप पगङी धरे रो रहा
ससुर जी, दहेज की मांग अघाते थे
सारा बचपन नजर हो उठा
बाबा के आंसू चीर सा गये
पति परमेश्वर भी चुप बैठे थे
सपनों को उसके नीर खा गये
बढ़ कर उसने उठायी पगङी
सिंदूर अग्नि के नजर किया
ससुर के छूकर चरण उवाची
ये रिश्ता हमनें खत्म किया
थी सभा दंग,
पति जी अब कम्पकपाते थे
सास को छुट गया पसीना
ससुर भी हाथ जोड़कर मनाते थे
गृहलक्ष्मी अब रणचंडी हो उठी
हाथों में, बाबा की पगङी सुहाती थी
भाई का सीना हो गया था चौङा
मां भी अब मुस्काती थी
खाली हाथ कि बारात विदा
इक नयी प्राचीर लिखी
"उत्तम" का उस दुल्हन को वंदन
जिसमें नवभारत की तस्वीर दिखी
इक नवयुवक उठ आगे आया
बिन दहेज विवाह प्रस्ताव धरा
गर्वित आंखों से बाबा ने
उसे दामाद रूप स्वीकार किया
पति जी अब वो जेल खा रहे
पुराने सास ससुर भी संग में हैं
है दुल्हन नवससुराल के आंखो का तारा
और जीवन भरा खुशियों के रंग में है