फिसलन भरी राह

फिसलन भरे उस राह मे
जहां पल भर को उलझे थे मेरे पाँव
अब सन्नाटा है..

किसी मंजिल का कोई सिरा
वहां छुटा तो है
पर मुझसे जुडा नहीं है
स्तब्ध हूँ
नि:शब्द हूँ

अगर भटक जाऊं उस बीहड़ जंगलो मे
तो क्या कोई ठंडे पानी का चश्मा होगा
या एक पुराना खंडहर
और  जुगनुओं की उधार दी हुई रौशनी

सुलझे हुये जिन्दगी मे
उलझा हुआ ये
बेवजह
बेसबब
बेतुका
सा सवाल
रह जाता है निरूत्तर
गुंजता है फिर वही सन्नाटा ...
                  


तारीख: 02.07.2017                                    साधना सिंह









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