हाँ मैने देखा है

जीने की चाह में , जिंदगी को खुद से लड़ते देखा है
हां मैंने पत्थरों में भी दरख़्तों को उगते देखा है ।

तुम छांव में लपेट कर धूप उसके हिस्से की
जो उसको सपनों का मखमली शहर दिए जाते हो
मैंने ऐसे कटे पर परिंदों को
आसमानों में उड़ने को तरसते देखा है ।

तुम कौन हो, कहां के हो, क्या ओहदा है, क्या रुतबा है
इससे कोई फर्क नहीं मुझको
मैंने कब्रगाहों में
हर एक बुलंदी को फना देखा है ।

इंसान हो तो ही इससे बात करो
तुम्हारी रंग जात मजहब की.खुदगर्जी बेकार है कुदरत के लिए
क्योंकि बिलखते दर्द सिसकती साँसो में
इसने हर एक को एक जैसा ही तड़पते देखा है।

किरदार कितने भी दिलचस्प हो
कहानी कभी तो रूकती ही है
दिलनशी सपनों की लहरें भी

आंखें खोलो तो थमती ही हैं
तो दिल खोल के मजा ले लो
जिंदगी की पिघलती बर्फ का जी भर
वरना इसी अफसोस की साए में मैंने
कई शामों को ढलते देखा है।।


तारीख: 11.04.2024                                    निधि श्रीवास्तव




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