है बदलता वक़्त तो, साथ है दृष्टि बदलती
कल तेरे संग सूर्य शीतल,अब चन्द्रिका भी विष उगलती
कल तो तेरे बस कुन्तलों से खेलने में खो गया
अब खुले ये नैन तो ये जिंदगी मुझसे खेलती
व्यर्थ लगे सुमनों की सुरभि, तुम बिन व्यर्थ ये उपवन है
व्यर्थ लगे प्राण अब तो, अभिशप्त हर धड़कन
कहाँ हो तुम, फिर से आज तुमको ढूंढता है मन
वक़्त यूँ तो है बुझाता हर सुलगते भोर को
है दबा देता समय फिर, प्रेम के हर शोर को
फिर किसी दिन एक डगर पर हमसे हो दो चार वो
प्रेम चिन्ह षड्यंत्र रचता, जोड़ने नेह डोर को
जो छिपी सी चाह थी, वो आज बागी बनी है
शरद की शाम को मैं आज भी महसूस करता हूँ
मेरे अधरों पर तेरे सुर्ख होठों का सजल नर्तन
कहाँ हो तुम, फिर से आज तुमको ढूंढता है मन