कैसे तारीफ करें
समझ नहीं आता
शब्दों की महफिल में
आपकी तारीफ लायक
कोई शब्द नजर नहीं आता।
खिले हैं फूल चारो दिशाओं
यूं तो जर्रे जर्रे में रंगत नजर आती है
कैसे समझायें इस नादां दिल को
जब से इन नजरों ने
आपकी 'इक' नजर से प्रेम किया है
न कोई रंगत इन नजरों को आपके सिवा
कोई ओर बहारे-ए-फूल नजर नहीं आता
उठते ही हम सुबह को दुआओ में
तुझको नहीं तेरे लिए स्वयं को मांग लेते हैं
शाम होते ही तेरी यादो की महफिल
और अपने आप को थोड़ा सा बहका लेते हैं
सुबह की लाली
बेनूर सी लगती है
तेरी नूर-ए-रंगत के आगे
ऐ हमसफर
मुझे चाँद से कोई शिकवा नहीं
परंतु क्या करूं
चाँद की चाँदनी भी चुभती है नजरों को
जब तक उसमें
तेरा चेहरा नजर नहीं आता।