काँव-काँव चिल्लाते संसद में

 

यहाँ रात में आँधियों के पहरे कड़े हैं

तूफ़ान से लड़कर भी दरख़्त खड़े हैं 

 

कहीं टहनी ने लता को गले से लगाया

मगर हम यहाँ क्यों आपस में लड़े हैं 

 

कितने बेशर्म हो गए हैं आज के नेता

कुछ फर्क पड़ता नहीं चिकने घड़े हैं

 

ऊंचे परवाज़ की चाहत रखते हैं जो

बुलंद होंसलें आसमान से भी बड़े हैं

 

रात भर पैमाने से पैमाना टकराते रहे

सुबह हुई तो देखा गंदे नाले में पड़े हैं

 

लोगों ने दिखाया औकात का आइना

क्रूर भेड़िये आज भी सत्ता पर अड़े हैं

 

काँव-काँव चिल्लाते संसद में 'एकांत'

'माथे पर उनके मोर के पंख जड़े हैं


तारीख: 16.11.2019                                    किशन नेगी एकांत









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है