सीढ़ियां चढ़ते वक्त भी सीढ़ियां ही गिनते हो,
एक पल के मयान में कई दिनों को रखते हो,
क्या कभी अपनी उंगलियों की बेहतरीन कारीगरी को उकारा है?
क्या कभी खुद से, खुद के लिए, खुद के पल निकाला है?
कभी पतंगों की कश्ती में निश्चिंत बैठ, हवाओं की मदमस्त लहरें देखी हैं?
क्या कभी बादलों और घटाओ में अपनी निश्छल हंसी फेंकी है?
क्या कभी पक्षियों की चहचहाहट में, कोई गीत गुनगुनाया है?
क्या कभी बेवजह बस यूं ही, मां को गले से लगाया है?
कभी अपनी परिपक्वता में अपनी मासूमियत भी तराशा करो |
जिंदगी को जिंदा रखने के लिए, कभी फुर्सत भी तलाशा करो|
इस फुर्सत में अपने निर्दोष ख्वाबों को नयनों में थोड़ा घर दो,
आखिर तुम ही अपने अनमोल जीवन के सर्वश्रेष्ठ कारीगर हो |