कवि की अभिलाषा

चाहता हूँ कुछ ऐसा कर के जाऊं
इस जहाँ से ,
जब चला जाऊं यहाँ से
तब लोग हमेशा याद करें ,
मुझे नहीं बल्कि मेरी उपलब्धियों को
जिन्हें मैं उन्मुक्त मन , उन्मुक्त हाथों से

लुटाता जा रहा हूँ ,
जिससे मैं लोगों के लबों पर
गीत बनकर आ रहा हूँ II

है छोटी सी तमन्ना ,
इस जहाँ को आगोश में अपने मैं भर लूँ ,
इस जमीं को स्वर्ग कर दूँ ,
खुशियाँ असीमित इसमें भर दूँ ,
अगर किस्मत साथ दे तो
कर्म के दम पर मैं मेरे
वक्त को भी बांध लाऊं ,
इस धरा को रंगीन कर दूँ
चाँद –तारों से सजाऊँ II

जोश है, उन्माद है और जीत का उत्साह भी है
सब कुछ है मुझमें चाहिए जो
जीत का विश्वास भी है ,
लक्ष्य माना है बड़ा पर
साक्षी इतिहास भी है ,
कह रहा जो चीखकर
“ कर्म पर विश्वास कर तू,
मन से हार न मानना
मुश्किलों से हार कर तू II “

जोश इतना बाधा की चट्टान को मैं चूर कर दूँ
कष्ट झुग्गी –बस्तियों का दूर कर दूँ ,
बन भागीरथ खुशियों की मदमस्त सी
लहराती गंगा फिर से मैं लाऊँ,
पाप से कलुषित - मलीन धरती को
विमल फिर से मैं बनाऊँ ,
श्वास जब तक भी मेरी चलेगी
लड़ता रहूँगा भाग्य से मैं
धडकनें जब तलक धक –धक कहेंगी II

तय इसीलिए मैंने किया है
तन भले ही हार जाए
मन मेरा हार न मानेगा ,
जब तक मुझमें बहता है गर्म लहू
कर्तव्यों को पहचानेगा ,
अपने दम पर हर यत्न करूंगा
दुनिया को स्वर्ग बनाने की ,
जो कुछ पीढ़ी है भुला चुकी
उसको फिर से लौटने की ,

है कवि की यही अंतिम अभिलाषा
मैं जाऊं जब इस धरती से
तैयारी हो एक परिवर्तन की ,
जो भी कलुषित धरती पर हैं
तैयारी हो निष्कासन की ,
जब कभी यहाँ मैं फ़िर आऊँ
इसको तब मैं उन्नत पाऊँ ,
तब रुदन कहीं न सुन पड़े मुझे ,
जब जाऊं धरा को सौंप तुझे II


तारीख: 11.03.2024                                    साहित्य मंजरी









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