ख्वाहिशों की बात में इतना सा फन रखा ,
जो हो सकी ना पूरी, उनको दफन रखा।
जरूरतों की आग जब भी तपने लगी ,
बचता रहा था बेशक एक सफन रखा।
हादसे जो घट गए क्या रोना था उन पे,
और मुश्किलें जो आनी थी मदफन रखा।
हसरतों जरूरतों के दरम्यान थी जिन्दगी ,
थोडा इसपे लगाम थोडा उसपे कफन रखा।
मुसीबतों का क्या था आती रहीं जाती रहीं ,
सोंच में अल्हड़पन ना जज्बात पचपन रखा।
रूह के रूआब में कसर ना रहा बाकी ,
थीं जिनसे भी इतनी सी नफरत अमन रखा।
जिंदगी की फ़िक्र क्या मौज में कटती गई ,
बुढ़ापे की राह थी और जिन्दा बचपन रखा।