किसी कमजर्फ़ से अब इल्तिजा क्या करूँ जब होनी ही नहीं कबूल तो दुआ क्या करूँ । चाहता तो हूँ चलना इमानदारी के रास्तों पर मगर साथ ही न दे जब ये जमाना क्या करूँ
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