क्या फ़र्क पड़ता

क्या  फ़र्क पड़ता है  मुझे क्या फर्क पड़ता है 

   जाने क्यों अब मुझे रोना नहीं आता है उसे मरते हुआ देख कर 

  भगवा अंगौछा डाल मैं  खुश हु उसे मुझसे डरता हुआ देख कर  

  मेरे जेहन को तकरीबन घेर चुकी है नफरतो की वो बेल

  जो तुमने  कभी रोपी थी ,

  कल आँखों के सामने मैंने उसे मरने दिया जिसकी 

 बड़ी सी  दाढ़ी और सर पे एक टोपी थी 

 किसी बदनसीब के कापंने की आवाज से 

 मेरी मखमली नीद  का खुलना मुझे हडता है || 

 क्यों की मैं जनता हूँ उसके मरने से 

 क्या फर्क पड़ता है

 मुझे क्या फर्क पड़ता है  | 


तारीख: 08.04.2018                                    आनन्द त्रिपाठी









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