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मैं मजदूर, हूँ अब मजबूर,
मैंने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा बनाया।
जब आई विपद मुझ पर,
सब ने मुझे दर-द्वार भटकाया।।१।।
न बनते बंगले, मॉल मुझ बिन,
न सड़क, पुल और अस्पताल।
रोटी रोजी थी मेरी मजदूरी,
छीन गई यह भी, हुँ अब खस्ताहाल।।२।।
फेक्ट्री चलाई और चलाई मील,
हर वक़्त उठाया सबका बोझ।
अब भटक रहा हूँ दर बदर,
उठा न सका कोई मुझ पर से बोझ।।३।।
रुई उठाई, बुना कपड़ा धागा,
निज तन को बचाने अब घर को भागा।
पड़ गए छाले पांव में, सिर पर है न छाया,
फिर भी दौड़ा उस ओर जहां जन्म पाया।।४।।
डामर कंकरिट जिस पर डाला,
आज उसी सड़क ने मुझे सम्भाला।
थाम उंगली मेरी, दौड़ पड़े बच्चे इस पर,
हाय कोरोना तू ने यह क्या कर डाला।।५।।
देखो मुझ मजदूर की मजबूरी,
भूख ने मिटाई सामाजिक दूरी।
आई विपद जब मुझ पर भारी,
क्यों नही घट पाई मेरी घर से दूरी।।६।।
खेती किसानी सब भूल गया,
वक़्त ने मुझे बस मजदूर बनाया।
जब खाली हाथ सब ने निकाला,
निज गांव खेत अब याद आया।।७।।
पर था क्या दोष मुझ मजदूर का,
सब ने ही तो दी मुझे मजदूरी(काम)।
अब जब भूख मुझ पर मंडराई,
क्यो दिखलाई तुम सब ने मजबूरी।।८।।
आया संकट कोरोना में जीवन पर,
सब ने क्यों मुझे दर दर भटकाया।
'बिरजू' जब दौड़ा मैं घर की आस में,
घिस-घिस कर मिट गई मेरी काया।।९।।