सुनो हे शैलज़ा,
सुनो हे जलमाला।
तुम मेरे शहर न आना।
तुम खूब टहलना जंगलों में,
तुम खूब उतरना पहाड़ों पर,
तुम करना आलिंगन गावों का,
तुम हिमालयों की कथा सुनाना,
तुम सब छू कर करना हरा-भरा,
फिर अपनी सुंदरता पर इतराना, मगर
तुम मेरे शहर न आना।
यंहा हम विष उगलेंगे
तुम्हारे कोरे-सादे बदन पर,
अपना हम 'गरल' रंग भरेंगे।
फिर खाँसोगी जब तुम झाग उगलकर,
हम अपनी-अपनी नाकों पर रख कर हाथ,
छी-छी और थू-थू करेंगे।
क्या फायदा है तुम्हे ये सारा विष पीकर,
हम फिर भी तुम्हे न 'शिव' कहेंगे।
जो गर बचा हो थोड़ा भी स्वाभिमान,
या हो थोड़ी सी हीं जान अगर,
तो अपनी ये दुबली-पतली काया लिए,
किसी नहर की बांह पकड़कर,
दूर कहीं चली जाना।
सुनो हे शैलज़ा,
सुनो हे जलमाला,
तुम मेरे शहर न आना।