नकारात्मक नहीं हूं मैं
नकारात्मक लिखता जरूर हूं
लेखनी मेरी बहुत आसान थी
भावों को शब्दों मैं पिरोता जरूर हूं
किताबें जो कभी ना पढ़ी गई मुझसे
पन्ने उन किताबों के पलटता जरूर हूं
टूटी थी कलम हर बार लिखने में
कहानी ये मुश्किल थी पर लिखता जरूर हूं
भाव थे कोई अभिव्यक्ति न थी
हर बार अपने आप में घुटता जरूर हूं
कद्र किसे थी मेरी खानाबदोशी की
हर पड़ाव को गंतव्य समझ कर रुकता जरूर हूं
मजबूत हूं,भरभरा के नहीं गिरूंगा
खंडहर की टूटी दीवार सा दरका जरूर हूं
बितानी थी ये उम्र, लंबी ना सही
सांसों और धड़कनों के खेल में उलझा जरूर हूं
बहुत कुछ था कहने को,मगर खामोश रहा
अब इस दौर-ए-खामोशी को सुनता जरूर हूं
सूरज की तरह जला,चिराग की तरह बुझा हूं
लौ की अंतिम फड़फड़ाहट को समझता जरूर हूं