पहाड़ों में पतंगबाजी

माना जाता है पतंगबाजी चीन ने आरंभ की । वैसे तो पूरे विश्व में विशेषतः भारत में मकर संक्रान्ति तथा वसंत पंचमी पर धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक,  ओैर मनोरंजन या खेल की दृष्टि से पतंग उड़ाना एक शगुन माना जाता है परंतु अपने बचपन में की गई पतंगबाजी की एक अविस्मरणीय यादें होती हैं, शायद आपकी भी जरुर होंगी और मेरा संस्मरण पढ़ने से जरुर ताजा हो जाएंगी ।
             हिमाचल प्रदेश में ,सपाटू के स्कूलों में उन दिनों दिसंबर से जनवरी के अंत तक, सर्दियों की छुटिट्यां होती थीं जिसे हम एक टाइटल के तौर पर ‘दो महीने की छुटिट्यां ’ बोला करते थे । बाद में यह  अवकाश 15 दिसंबर से 15 फरवरी तक कर दिया गया। हमारे बचपन के समय में सपाटू में अक्सर इन दिनों बर्फ पड़ जाती है।  
            सर्दियों में धूप में बैठ कर, कलम दवात, होल्डर जिसे हम डंक भी कहते थे, तख्ती, काली स्याही, गजनी, लाल- नीली - हरी इंक की टिक्कियां पानी में घोल कर स्याही बनाते,कलम घड़ते, जी, आई और जैड के निब होल्डरों में फंसाते,  किताबें कापियां तख्तियां लेकर बैठते और दो महीने का होमवर्क 15 दिन में ही निपटा लेते।बस फिर पूरा डेढ़ महीना, पिट्ठू, गुल्ली डंडा, कन्ंचे, अखरोट, रीठे की काली गोलियां, लुक्कन छिप्पी, काट कटउव्वा, तार से टायर चलाने, पतंग उड़ाने , बनफशा इकटठा करने, दाड़़ू छीलने, अनारदाना निकालने, चीनी व नमक के साथ चकोतरे खाने में कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता। सर्दियों के दिनांे में अक्सर लोग दुकानें बंद करके मैदान की यात्राओं पर निकल जाते। हमने भी 1960 में ऐसे दिनों में दिल्ली, इलाहाबाद की खूब सैर की। मकर संक्राति पर प्रयाग में नहाए।
                छोटे मोटे खेलों में , जो मजा पतंग उड़ाने में आता, वो कहीं नहीं आता। पतंग उड़ाना हमारे खेल का एक अहम हिस्सा होता था । जैसे छुटियों के सिलेबस में हो । क्या मकर संक्रान्ति ,क्या वसंत पंचमी ! हमारे लिए रोज ही मकर संक्राति थी .....रोज ही वसंत पंचमी थी !  हमारी दूकान पर ही रंग बिरंगे पतंगी कागज और डोर बिकती थी। कांच का सामान बांस से बने खांचों में आता था जिसकी खपच्चियां हम सारा साल संभाल कर रखते और सर्दियों में उससे पतंग बनाते। हमारे सपाटू में , सिखणू जी एक बुजुर्ग थे जो दशहरे पर  रावण बनाते थे। इसके अलावा वे बांस से टोकरी और किल्टे भी बनाते। इसलिए पतंग के लिए कान्ने यानी बांस की पतली धज्जियां उनसे फ्री में मिल जाती।
                    ल्ंोकिन पतंग बनाना और उड़ाना अकेले के बस का  नहीं था। आजकल पतंगें रेडीमेड मिल जाती हैं, उन दिनों ये मिलजुल कर ही बनाई जाती थी और इसे बनाना एक टेढ़ी खीर होती थी। मैदे की लेई बनाते या गोंद की डलियां घोलते पतंग के कागज चिपकाने के लिए। पतंगी कागज को डायमंड शेप में काटना है या गुडडी शेप में ? यह तय किया जाता जैसे टेलर मास्टर कपड़ा काटने से पहले सोचता है कि इस कपड़े से पैंट बननी है या कमीज!पतंग के सेंटर मंे लगने वाली पतली डंडी को ‘ठडड्ा’ कहते थे जो आसानी से चिपक जाती थी और दो तीन चेप्पियां लगा कर टिक भी  जाती थी। लेकिन असली कारीगरी होती थी सेमी सर्कुलर डंडी को चिपकाना जिसे हम ‘चाप’ कहते थे। लचीली होने के कारण ,यह कई बार जल्दी से टिकती नहीं थी या फटाक से मुड़ कर पतंग का कोना ही फाड़ देती थी। कई बार इसे चिपकाने में तीन- चार यार मदद करते। फिर इसे किसी भारी चीज से दबा कर , सूखने तक कड़ी निगरानी में रखते। अब एक मुसीबत होती इसमें धागा बांधना और पतंग को धागे से बार बार उठा कर देखना कि कहीं झोल तो नहीं । बिल्कुल एक सुनार की तरह! एक लड़का देखता कि पतंग ,एक साइड को ज्यादा जा रही है  या कम। जहां बैलेंस बनता वहीं धागे में गांठ लगा दी जाती और फिर पतंग डोर से बंधने को तैयार....उड़ने को बेकरार।
              मंाझा यानी पतंग उड़ाने के लिए मजबूत और धारदार डोर तैयार करना भी एक कला थी। यह और भी मुश्किल और रिस्क वाला काम था। मेरे कसौली वाले कजन ने अपना अनुभव बताते हुए एक तरकीब सुझाई जो हमने घर में किसी को बिना बताए अपनाई। हमने बाबू हरी राम लोहे वालों की दुकान से सरेश जो एक डली होता था, उसे खरीदा। आग पर पिघलाया। कांच तोड़ कर उसे बारीक करके कपड़े से छाना और सरेश में मिला कर  और सारी डोर पर लगाया। डोर एक दम कड़क हो गई। फिर अपने घर की छत पर चढ़ कर पतंग उड़ाया। सपाटू में उन दिनों सारे घर, ढलानदार टीन की छतों के ही बने हए थे। लेकिन पतंग ,हम पूरे  होशोहवास में ही उड़ाते ताकि कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए । तीखे कांच के कारण कशमीरी मोहल्ले की पतंगें हमने खूब काटी। उधर से आवाजें आती- वो काटा...वो काटा...ढील दे...... छोड़ दे..... फिर दुरगाई दे। एक दिन कोई मोटा कांच, डोर से हमारे हाथों में लग गया जिससे घाव हो गए। हम सरसों का तेल लगा कर दस्तानों से उसे एक हफ्ता छुपाए रहे और फिर पतंग उड़ाने लग गए। पतंग की ऊंची उड़ान के लिए अक्सर निचले परेड ग्राउंड में जाते या फिर बूचड़ खाने की टिब्बी पर चढ़ जाते या फिर देलगी रोड के ठड्डे पर पहुंच जाते। वहां हवा बहुत तेज होती और हमारी पतंग बहुत ऊंची उठान लेकर ,दूर तक उड़़ती जिसे देख कर मन में अजीब सी  झूरझुरी उठती। कई बार हवा का रुख बदलने से या दबाव कम होने से पतंग एक दम खडड् या खाई में ही गिर जाती और हम डोरी इकटठी कर के घर लौट आते। नई पतंग बनाते फिर उड़ाते।
                    कसौली से मेरा कजन अमरचंद आ जाता और हम खूब पतंगें उड़ाते। सपाटू में उन दिनों कोई बेकरी नहीं थी। धर्मपुर या कसौली से ही बहत बढ़िया बंद ,रस, केक, डबलरोटी आती। हमारी बुआ, कसौली से हमारे लिए कनस्तरों में बिस्कुट ले आते और सपाटू मेें हमारे घर में 4 किस्म की पिन्नियां बना कर कनस्तरों में भर दी जाती। हल्दी, आटे, मैदे और अलसीे की पिन्नियां। बाजार के हलवाई गाजर पाक और अलसी की खास तौर पर पिन्नियां बनाते।आज भी बनाते हैं। पिन्नियां, बिस्कुट खाना और पतंग उड़ाना एक दिनचर्या रहती।
                   पतंगों की अलग अलग किस्में थी। मुझे गुडड्ी पसंद थी क्योंकि उसकी शेप कुछ अलग होने से और लम्बी पूंछ होने से  वह आसमान में एक दम उड़ जाती। पतंग को एक लड़का दुरगाई देता और यह डोर खींचते ही आसमान में लहराने लगती।  ज्यादातर हम अपनी छत से ही पतंगें रोज उड़ाते , रोज कटवाते और रोज बनाते। पतंगों का सामान दुकान पर ही था। और हमारे बाबू जी ने हमें इस मामले मंे खुली छूट दे रखी थी। हमारी पतंगे, कशमीरी मोहल्ले से पतंग उड़ाने वाले अक्सर काट देते। मेरी पसंद जामुनी रंग की लंबी पूंछ वाली गुडडी पतंग थी जो खूब लहराती हुई आसमान छूती दिखाई देती।
                   वसंत पंचमी वाले दिन आकाश मंे पीली पीली पतंगें ही दिखती। रात को सबको इंतजार रहता लाला संुदर लाल कंसल , कपड़े वालों के गुब्बारों का। अंधेरा होते ही लाला संुदर लाल ,अपने हाथों से  पतंगी कागज से बनाए गुब्बारे  खुले मैदान में ले आते । नीचे मिटटी के तेल में भिगोए कपड़े में आग लगा कर उन्हें उड़ाते। कारीगरी ऐसी कि मजाल है कोई गुब्बारा बीच में जल जाए या न उड़े । पूरा बाजार रात को  उड़ते हुए रंग बिरंगे  गुब्बारों का लुत्फ उठाता। सामने शिमला जगमगाता  दिखता । गुब्बारा एक जलते हुए बिन्दु के रुप में कहीं ओझल हो जाता लेकिन हम चिल्लाते ...इठलाते कि  हमारा गुब्बारा शिमला में गिरा। 2021 की दिवाली पर हमने  ऐसे रेडीमेड गुब्बारे लिए जिनमें से कुछ उड़े कुछ नहीं ।
पतंगबाजी का यह सिलसिला खत्म हो गया। फिर मौका मिला चंडीगढ़ में 2020 में, जब हमने थियेटर फॉर थियटर, जिसका मैं अध्यक्ष भी हूं, ने लेज़र वैली में , एक मासिक फेस्टिवल के कार्यक्रम में पतंग उड़ाने की प्रतियोगिता रखी। ये पतंग विशेष मैटीरियल के बने होते हैं और काफी भारी होने के बावजूद एकदम उंचाई पर पहुंच जाते हैं। ये काफी मंहगे होते हैं। आप इन्हें विभिन्न आकारों में  टी.वी पर भी अक्सर देखते होंगे जो आजकल बड़े नगरों में खास खास मौकों पर उड़ाते हैं।
                   उम्मीद है आपने पुरानी फिल्में- ‘दिल्लगी’ , ‘भाभी’ ,‘पतंग‘ और ‘कटी पतंग’ तो देखी ही होंगी। सन् 1949 में आई फिल्म- दिल्लगी’ का गाना-‘मेरी प्यारी पतंग चली बादलों के संग’ भी शायद याद हो । लेकिन 1957 में आई ‘भाभी’ फिल्म में जगदीप पर फिल्माया गीत -‘चली चली रे पतंग मेरी चली रे’  भी जरुर गाया होगा। राजेन्द्र कुमार -माला सिन्हा  की 1960 में आई थी ‘पतंग’ फिल्म भी देखी होगी। इसमें रफी साहब का एक गाना- ‘ये दुनिया पतंग.. नित बदले ये रंग .. जाने उड़ाने वाला कौन है ’ , हास्य कलाकार ओमप्रकाश   और मोहन चोटी पर बड़ी मस्ती से फिल्माया गया था। मौका लगे तो पतंग का जीवन दर्शन जानने के लिए इसे अब यू ट्यूब के माध्यम से देखिए जरुर । फिर राजेश खन्ना की ‘कटी पतंग’  आई और नारी की वेदना को कटी पतंग के माध्यम से दर्शाया गया - ‘मेरी ़िज़दगी है क्या....एक कटी पतंग है ’ । और 1993 में शबाना आजमी की भी आई ‘ पतंग’। ऐसे बहुत से फिल्मी और गैर फिल्मी गाने और भी हैं जिनमें उड़ती गिरती, फटती , कटती पतंगों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया गया है। फिल्म ‘काई पो छे‘ में भी एक गाना पतंग महोत्सव के जोश को चित्रित करता है और  पतंग, आसमान, उड़ान, मांझे के गिर्द घूमते हुए जिंदगी के रिश्तों, जज़्बों की दास्तां बयां करता है।
                    यह भी मान्यता है कि पतंग उड़ाने से शरीर को ऊर्जा मिलती है, धूप में रहने से विटामिन डी तो मिलता ही है, साथ में त्वचा तथा हडिड्यों संबंधी बीमारियों में भी राहत मिलती है। यही नहीं पतंग उड़ाते समय जो हर्षोल्लास मिलता है, वह आपको टी.वी या सोशल मीडिया पर नहीं मिल सकता।पतंग मात्र उड़ाने की चीज ही नहीं अपितु एक संपूर्ण जीवन भी है। उड़ती पतंग खुशी देती है, गिरती हुई मायूसी। आसमान में उड़ते हुए यह एक आजादी का एहसास कराती है। इसकी डोर मनुष्य की जीवन डोर की याद दिलाती है। डोर कच्ची हो तो पतंग जमीं पर आ गिरती है। ज़िंदगी की डोर कच्ची हो तो आदमी की हालत भी कटी पतंग जैसी हो जाती है। यह पतंग कागज का टुकड़ा नहीं अपितु जीवन जीने की कला है। जब रंगबिरंगी पतंगें आकाश में लहराती हुई , आपस में लड़ती, काटती , पीटती,  बातें करती, अठखेलियां करतीं हमारे सपनों की तरह उंचाइयां छूती हैं तो उन्हें देखने का आनंद और ही होता है।
                  कई देशों में अब विभिन्न आकारों , शक्लों के पतंग उड़ाए जाते हैं। अमृतसर ,अहमदाबाद, लखनऊ आदि कई नगरों में में पतंग फेस्टिवल होता है या प्रतियोगिताएं होती रहती  हैं। पहले कई शहरों में पतंगें बनाने वाले हुआ करते थे। कंप्यूटर और मोबाइल पर गेम्ज आने से बच्चे खुले वातावरण का आनंद नहीं उठा पा रहे। पतंग बनाने वाले एक्सपर्ट भी नहीं रहे। जगह की कमी, पढ़ाई का बोझ, कोरोना का डर! कई नगरों में अब सिल्वर, गोल्डन कलर की पतंगें भी मिल रही हैं। हमारे समय पतंगी कागज में कुछ रंग ही होते थे। अब अमेजन से ऑनलाइन बच्चों को पतंगों का 30 का पैक, डोर  और चरखी सहित मंगवाया जा सकता है। मल्टी कलर,चील ,अडडी ,तवा साइज,गुडडा, गुडडी,अफगानी, बाम्बे हाफ,त्रिवेनी, तिरंगा, पौनी, इंडियन फाईटर आदि पतंगों के नए नाम हैं। डोर प्लास्टिक की आने लगी है जिसके कारण कई दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं। बैटरी से चलने वाली स्पूल यानी हमारे वक्त की चर्खी है जिसमें बटन दबाते ही डोर इक्टठी हो जाती है।  आप भी स्कूटर या सायकिल चलाते या पैदल चलते ध्यान रखें कि कहीं प्लास्टिक की तार गिरी हुई या सड़क के मध्य लटकी तो नहीं।
              हम जब पतंग उड़ाते थे तो एक लड़का तो डोर संभालने की डयूटी निभाता और बारी बारी से पतंग उड़ाते। कट जाती तो लड़ भिड़ कर अपनी घायल पतंग उठा लाते ; लेई या गोंद से  चेप्पी लगा कर फिर उसे उड़ाने की कोशिश करते। पतंग काटने और डोर लूटने का अपना ही मजा होता था।
परंतु पतंगबाजी का जो लुत्फ आपने भी अपने  बचपन में उठाया होगा वह कभी बाद में नहीं मिला होगा।
           इसी लिए तो कहते हैं- बचपन के दिन भी क्या दिन थे ...उड़ते रहते...... तितली बन......


तारीख: 15.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू




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