परस्पर विश्वास,त्याग और समर्पण की मिट्टी से बना,
चौथ पर पुजते सादा करवे सा होता है प्रेम,
जो न जाने कितने ही पूरे-अधूरे
वादों के रंगों से रंगी मौली बांधे,
झूठे-सच्चे लांछनों की भट्टी में तपा,
सूर्योदय से चंद्रोदय तक अनवरत
अपनी निर्जला प्रेमिका के लिए
शीतल जल की सौंधी सुगंध से भर
जब पहली बूंद उसके अधरों तक पहुंचाता है
तब पंचतत्व को साक्षी मान दो रूहें
पुन: दोहराती हैं सप्तपदी के सारे पद,
जो देहों के पंचतत्व में विलीन होने के
सदियों बाद भी गूंजते रहते हैं, दसों दिशाओं में !