मानव देह, अपनी, हर दिन, हर पल, अब निष्प्राण हो रही ,
लेकिन भीतर, अब भी, सुलग रही इक आतिशी चिंगारी है ,
छूट गई, अब वो जो थी, बरसो से, वो कारागार की बंदिश,
पर छूट ना पायी, अब तक, जो, इस घर की चारदीवारी है,
दबाये रखा, इस दुनिआ ने, हम को, जो कितने ही बरसों ,
फिर यूँ ,खुल के कभी, किसी से, कुछ कह भी तो ना पाये,
आ गई है, खुदाया, आखिर सब कुछ सबसे कहने की बेला,
उसकी रेहमत से, आखिर, खत्म हुई बरसो की, दुश्वारी है,
इसकी, उसकी, इनकी, और ये, लाखों उम्मीदें, ज़माने की,
आज़ाद हुआ फिर भी ये देखो मुझ पे कितनी जिम्मेवारी हैं,
देखना है मुझे कि, मुझसे, दिल किसी का ना टूटे, कभी भी,
यही अब हमारा भाग्य है प्रभु,नियति भी अब ये ही हमारी है,
मानव देह, अपनी, हर दिन, हर पल, अब, निष्प्राण हो रही ,
लेकिन, भीतर,अब भी, सुलग रही, इक आतिशी चिंगारी है !!