संदूक और अनमोल खज़ाना

सोचा, आज मन का संदूक खोला जाए,
बरसों से लगा उसका ताला खोला जाये,
कुछ भूली, कुछ बिसरी, यादों को टटोला जाये...

काफी समय से बंद पड़ा था,
मन के कोने में, ज़रा छिपा हुआ था...

झिझक का ताला जड़ा हुआ था,
कोशिश की चाभी को ढूंढ रहा था...

हिम्मत कर, खोली चाभी,
मन में डर था अभी बाक़ी...

दुःख-दर्द की धूल पड़ी थी,
आँखों में नमी छिपी थी...

थर-थर काँप रही थी,
मन ही मन भांप रही थी...

यादों का था, एक झोला,
जैसे सपना, सजीला सलोना...

खोया बचपन, वापिस पाया,
टूटा खिलौना, भी मन को भाया...

रंग बिरंगी, तस्वीरें प्यारी,
एक नन्ही सी गुड़िया न्यारी...

मन हो गया तरोताज़ा,
दिल में शहनाई, बजने लगा बाजा...

शादी की साड़ी, पायल और कंगन,
फिर से मन हो गया मंगल...

दिल करने लगा यादों की सैर,
अपनी धुन में थिरकने लगे पैर...

मन का मोर नाच रहा था,
पीहू पीहू गा रहा था...

पहन चूड़ी और चुनरिया,
लाल रंग में रंग गई सांवरिया...

खुद को निहारने उठाया दर्पण,
अपना सब कुछ कर दिया अर्पण...

अपना अक्स देख ना पाई,
चेहरे की लालिमा दूर खो गई,
सफेदी की चादर लिपट आई...

खुल गया मन का राज़,
उतार दिया सर से ताज...

मन से सुहागन पर तन से विधवा,
क्या सारी उम्र यूँ ही है रहना...

सफ़ेद पल्लू से बांध ली अपनी रंगीन दुनिया,
संस्कारों में जकड़ गई ये "मुनिया"...

झट से सामान को बाँधा,
सन्दूकी में रख मन आधा...

भीगी पलकें, भीगा मन,
करने लगी फिर से यत्न...

सब यादों को दफना दिया,
औरत नहीं, माँ हूँ, याद करा दिया...

बंद कर दिया फिर से संदूक,
मन पर बिठा दिया पेहरी संग बन्दूक...

फिर ना खोलूंगी मन का द्वार,
छलनी कर, मन को मार...

ख्वाहिशों की चाभी को छुपा दिया,
यूँ ही मन को लुभा लिया...

छोटा सा एहसास, कुछ पल का था,
मेरा अनमोल खज़ाना, सुनहरे कल का था...


तारीख: 14.02.2024                                    मंजरी शर्मा









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