
तुम मेरे बड़े ज़िद्दी से दोस्त हो,
हमारी कभी पटरी नहीं बैठी ठीक से,
न जाने कितनी बार गरमागरमी हुई है,
कितनी बार ठान लिया मैंने—
"अब तुम्हारा चेहरा तक न देखूँगा,"
कितनी बार तमककर तुम्हें कोसा है मैंने।
पर इन सबके बावजूद,
मेरे होने में तुम्हारा हिस्सा कम नहीं—
कॉलेज की बेंच पर,
ठंडी रातों की नीरवता के बीच,
हम दोनों ने मिलकर
अपने भविष्य के हिस्से के सपने बुने थे।
आज भी,
जब बरसों बाद तुमसे मिलता हूँ,
दिल में अजीब-सी गर्मजोशी दौड़ जाती है,
चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर उठती है—
जैसे पुरानी यादों की कोई मशाल
फिर से रोशन हो गई हो।
पर अफ़सोस,
ये जादू ज़्यादा देर नहीं रहता,
मुलाक़ात के आख़िरी मोड़ तक
फिर से कोई बहस, कोई तकरार
दरवाज़े पर दस्तक देने लगती है,
और मैं, नाराज़ होकर,
फिर वही क़सम खाता हूँ—
"अब लम्बे वक़्त तक
नहीं मिलूँगा तुमसे!"
फिर भी जानता हूँ,
अगली मुलाक़ात तक
ये क़सम ख़ुद ही टूट जाएगी,
क्योंकि तुम्हारे बिना
मेरे सपनों की उस कथा का
एक अध्याय अधूरा सा रह जाता है।