बेइन्तिहाँ बर्बादी का ये मंज़र देख के हैरान हूँ ,
अपनी पीठ पर दग़ाबाज़ी का खंज़र देख के हैरान हूँ |
नियत से हट गए है मेहनतकश वो आदमी,
बेचते है ज़मीन को करते है बंज़र देख के हैरान हूँ |
आज भी फितरत बदली नहीं है क़ायनात की,
काट देते है जिन्हे, फलों-फूलों से लदें है वो शज़र देख के हैरान हूँ |
भरी है बदनियति, धोखा, फ़रेब, लालच और हवस,
क्या है ये बदन, हाड मांस का पिंजर देख के हैरान हूँ ||