केरल की पहली बारिश - संस्मरण

              मानसुन केरल से शुरू होता है,यह माध्यमिक कक्षाओं के भुगोल में पढा था। यह प्रत्यक्ष अनुभव करने का अवसर तब आया जब मै भारतीय रेल में नियुक्त होकर केरल के तटवर्ती नगर कोल्लम पहुचा। जीवन में पहली बार मैं परीवार, शहर से इतनी दुर आया था । अकेलापन और दूरी का दर्द तो था ही मलयालम भाषा को लेकर भी मैं परेशान था। सारे निजी एवं सार्वजनीक काम स्वंय को ही करना पडता था । भिन्न समाज,संस्कृति और भोजन से तालमेल बैठाते-बैठाते तीन माह बीत गए। अब मै वहाँ थोडा सहज था । 


                        दिनभर की थकान के बाद मैं हर शाम समुद्रतट पर जाने का प्रयत्न करता जो टहलने भर के अंतर पर था। मुझे बचपन से ही प्रकृति प्रिय थी, अब तो प्रकृति का सबसे विशाल और सामर्थी रूप मेरे सामने था। इसे निहारकर मैं अपने आप मैं सामर्थ पाने की कोशीश कर रहा होता। स्वातंत्र्यवीर सावरकर की एक मराठी कवीता पढी थी जिसमें वो सागर से विनती करते है की वो उन्हें अपने साथ उनकी मातृभुमि में ले चलें। इस समय सावरकर काला पानी की सज़ा काट रहे थे। मेरी उन जैसी अवस्था नही थी पर जन्मभुमि से दुर तो मै भी था। 
                      केरल के वातावरण से अभ्यस्त होने मे मुझे तीन माह का समय लगा। अब मैं मलयालम के कुछ शब्दों को समझने लगा था। शहर से बाहर फैले अथाह अरब सागर से अब मेरी मित्रता हो गई थी। पर अब मैं केवल रविवार को अपने मित्र से मिलने जाया करता। इस दुरी का मतलब निरसता नहीं थी। व्यस्तता एवं भोजन का प्रबंध मुझे अपने मित्र से दुर करते थे।


                     केरल की गर्मी मध्य या उत्तर भारत जितनी तो नही पर, अपना प्रभाव दिखाती जरूर है। मानसुन की बाट सभी जोह रहे थे और मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की थी की मानसुन दो जून को केरल पहुँचेगा।अब भारतीय मौसम विभाग की विश्वसनीयता से सभी परिचीत है। मई के अंत में एक रविवार सुबह से बादलों का जमावडा नीले आकाश मे शुरू हुआ। केरल में धुप-छाँव का खेल साधारण बात है़, शायद ही किसी ने इस ओर ध्यान दिया होगा। रविवार होने से मैं भी समुद्र तट पर जाने को लेकर उत्सुक था। वहाँ मेले जैसा माहौल था। विशाल सुर्य को सागर की गहराई में उतरता कौन नहीं देखना चाहता ? पर आज ये अवसर नहीं मिलनेवाला था। कवि निराला जी के प्रिय बादलों ने सुर्य को छिपा रखा था। 


                      प्रकृति आज मुझ पर ज्यादा मेहरबान थी वो मुझे सुर्यास्त से भी बडा दृश्य दिखाना चाह रही थी। आज हवा की गती साधारण से ज्यादा तेज़ थी, जो उॅंचे नारियल के पेडों को नचा रही थी। लहरें भी अपनी सीमा लाँघकर तनिक बाहर जा रही थी। हवा आज शीतल थी, उमस भरी नही। प्रकृति आज फिर विज्ञान ( भारतीय मौसम विभाग ) को झुठा साबित करने पर आमादा थी।


                     और इसी बीच वर्षा की प्रथम बुँदों का स्वागत बादलों की गडगडाहट और बिजलीयों की गुंज साथ हुआ। जैसे प्रकृति की मंशा भी इस घटना को बाजे़-गाजे़ के साथ करवाने की हो। तपती रेत पर शीतल बुंदो का गीरना भी कम सुगंधित नहीं होता, हाँ हम इसे मिट्टी की सौंधी खुशबू नही कह सकते पर ये महक भी मेरे अंतस तक जा रही थी, मुझे भीतर से महका रही थी, अवसाद निराशा को धो रही थी। वहाँ उपस्थित संपुर्ण मानव समुह प्रकृति की स्नेह रूपि वर्षा का आनंद उठा रहा था। भारत के विशाल जनसमुह में से शायद नियती ने यह सौभाग्य हमें दिया था की हम महान भारत भूमि में वर्षा की प्रथम बुँदो का स्वागत करें। परंतु, पवित्र प्रकृति के सानिध्य में आकर भी मानविय प्रवृत्ती भौतिक वस्तुओं की चिंता में ग्रस्त थी। बटुऐ, किमती स्मार्टफोन्स को भीगने से बचाने की कोशीश सभों ने की, मैं भी उनमें शामिल था।   
                   वर्षा एवं सागर ये प्रकृति के दो सबसे विध्ंवसकारी रूप हो सकते है। (बाढ और सुनामी के प्रहार को दक्षिण भारत झेल चुका है।) पर यहाँ इन दो महाशक्तियों का मिलन अनूपम था। विशाल सागर पर गिर रहीं वर्षा की सुक्ष्म बुँदो की ध्वनि संपुर्ण वातावरण को संगीतमय बना रही थी। संध्या ने कई रंगो की चादर ओढ ली थी। सुर्य की लालिमा उन सब में प्रबल थी। प्रकृति किसी नववधु की तरह अपने सर्वौत्तम श्रृंगार में थी। 


                   इस बारिश को देखकर मुझे घर की याद आई। माँ याद आई। पर, इन तीन महीनों में संभवतः पहली बार घर की याद ने मुझे दुखी नही किया था। प्रकृति की इस सुंदरता के आगे संसार की मोह-माया टिक नहीं पाई थीं। थोडी देर के लिए ही सही मैं अपने परिवार से दुर होने पर भी प्रसन्न था, प्रकृति के निेकट था......
                           


तारीख: 12.08.2017                                    प्रमोद मोगरे









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