मैंने शहरों में आखिरी बार गौरेया शायद 1999 में देखी थी। काफी धुंधली सी यादें है उस वक़्त की, मैं तब पटना में था और बस इतना याद है के बालकनी के रास्ते एक गौरेया आकर चलते हुए पंखे से टकराकर नीचे गिर गयी थी। पापा उस वक़्त दाढ़ी बना रहे थे और जब गौरेया गिरी तो उसके बाद पापा ने ही उसे उठाया। उस वक़्त की बस इतनी बातें याद है कि पापा उस वक़्त शेविंग क्रीम लगाते थे, अब नही लगाते। पापा के आधे चेहरे पर लगी हुई शेविंग क्रीम और उनके बड़े हांथो में वो छोटी सी गौरेया। बस वही मेरी आखिरी याद है शहरो में गौरेया की।
अब जब भी गांव जाता हूँ तो कुछ एक दिखाई देती हैं। लेकिन जल्दी बोलते नही सुना कभी, जब भी देखा है आंगन में कपड़े सुखाने के तारों पर चुप-चाप बैठा देखा है। पहले यंही जब आंगन एक था तो रसोइये के ऊपर छप्पर के नीचे इनके कई घोसले थे। सुबह उठने के साथ ही इनकी चहचहाहट और आंगन के इस कोने से उस कोने तक फुदकना शुरू। गर्मी के दिनों में जब कोई आंगन में पानी भरता तो ये चहचहाना शुरू कर देती हमे कभी समझ न आया, फिर एक दिन जब बाबूजी (बड़े पापा) बाल्टी से थोड़ी दूरी पर हटकर खड़े हो गए, फिर 6-7 गौरैयों ने एक साथ आकर पानी पिया। गांव की कई यादों में से गौरेया भी एक है।
वक़्त ऐसा आ गया है कि गांव पर अब साल में एक ही बार आना हो पाता है वो भी हफ्ते दो हफ्ते के लिए, दुख होता है, काफी ज्यादा दुख। इस बार घर आया तो इस महामारी के वजह से कुछ दिन और मिल गए रहने को, चैन की सांस लेने को, वाकई में रहने को।
इस बार भी गौरेया दिखी लेकिन चहचहाती हुई नही, चुप बैठी हुई आंगन में कपड़े सुखाने के तार पर। मन प्रश्न उठे कई प्रश्न, जैसे ये हमे कोई सजा दे रही हो यूँ चुप-चाप बैठकर। क्या तुम आज तक नाराज हो उस पंखे को लेकर? क्या ये आंगन बटने का दुख है? क्या ये घर छोटा लगता है या यंहा अब लोग नही है? क्या अब चापा-कल (हैंड पंप) नही दिखाई देता जहां तुम पानी पीती थी? उसे ढक देने से नाराज हो? या फिर कोई आंगन में तुम्हारे लिए जूठा चावल नही रखता अब?
या फिर हमारे सभ्य होने से नाराज हो?
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घर मे आज फ्रिज है, एल पी जी वाला चूल्हा है, मिक्सर है और लगभग सबकुछ जो हमे आधुनिक और सभ्य कहलाने को चाहिए।
मम्मी ने मगर आंगन के एक कोने में अभी भी सिलवट रखा है, भंडार घर मे शायद एक मिट्टी का चूल्हा भी है। सिलवट पर मम्मी को आज बोहत दिनों बाद कुछ पिसते देखा, पता चला कि पापा इस बार महीने के समान में पाउडर हल्दी की जगह खड़ी हल्दी ले आए हैं और मम्मी उनको सुनाते हुए हल्दी पीस रही है। चूंकि कई दिनों बाद सिलवट की आवाज सुनी थी तो अच्छा लगा, ऐसे जैसे शायद बचपन से कोई आवाज आ रही हो। मम्मी ने जितनी देर हल्दी पिसी मैं चुप-चाप देखता रहा आखिर में मम्मी ने सिलवट साफ करके उसपर आधी मुट्ठी चावल डाल दिया। मुझे समझ नही आया क्यों, और पापा के ऊपर चल रहे बाणों को अपने ऊपर लेने से अच्छा मैंने चुप रहना सही समझा।
आज दोपहर जब सो कर उठा तो मैंने कई गौरैयों की आवाज एक साथ सुनी, साथ मे मम्मी की भी आवाज उठकर खाना खाने को।
जब खाने के लिए हाथ धोने पोहचा तो मम्मी बर्तन साफ करते हुए गौरैयों की तरफ इशारा करते हुए बोल रही थी - रह जा बस 5 मिनट औरु (रुक जाओ बस 5 मिनट और)। मैंने देखा करीब 10-12 गौरेया आंगन में इधर से उधर फुदक रही हैं और खूब चहचहा रही हैं, खासकर मम्मी के पास। मैं जब किचन में अपने लिए खाना ले रहा था तो मम्मी ने आवाज़ लगाई और कहा - पहले चावल के डब्बे से एक मुट्ठी चावल लेकर इस सिलवट पर रख दो वरना ये मेरा जान खा जाएंगी, आज दोपहर में इनके लिए रखना भूल गयी मै।
आज जब मैंने इन्हें मम्मी से बात करते सुना तो लगा कि जैसे अभी भी उसी आंगन में हूँ, लगा के जैसे पंखे वाली बात पुरानी हो गयी, लगा के जैसे मैने पहली बार इन्हें सुना हो।
मैंने आज आंगन में आधे घंटे तक धीरे-धीरे खाना खाया, तब तक, जब तक गौरैयों ने सिलवट पर रखा चावल खाया और दुबारा मम्मी के पास जाकर चहचहाने न लगी।
एहसास हुआ, मैं आधुनिक हुआ हूँ, मम्मी नही, घर नही, आंगन नही और गौरेया नही।