अक्सर कुछ सुखे फूल, महक उठते हैं किताबों में

अक्सर कुछ सुखे फूल, महक उठते हैं किताबों में
मैं सोंचता था भूल चुका, हर बात इतने सालों में

यादों के जज़ीरे पर,  कोई सिसक रहा है आज भी
सीलन दिल की दिवारों पर, मैंने देखी है बरसातों में

कुछ रिश्ते सँभालने में, सारी उम्र गुजर जाती है
और कोई अपना हो जाता है, चन्द हीं मुलाकातों में

ये बाज़ी तो हारी बाज़ी थी, ना जाने कैसे जीत गया
शायद किसी ने रखा मुझे, हर पल अपनी दुआओं में

एक मैं हीं नहीं हुँ तन्हा, हमसफ़र उदासियों का
मैंने चाँद को रोते देखा है, अक्सर ठंडी रातों में

अब तो ख़िज़ाँ से हीं लगा रखी हैं, मैंने सारी उम्मीदें
नशेमन मेरा उजड़ा है, अभी पिछले बहारों में

इसी आस पे ख़ुद को मैंने, ज़र्रा ज़र्रा बिख़ेरा है
तुम कभी आ कर मुझे, समेट लोगे बाँहों में

कमाल तेरी दिलफ़रेबियाँ, मगर ऐसे हुनर भी देखे हैं
लोग सब कुछ लूट लेते हैं, बस बातों हीं बातों में

हैं हुश्न की देवियाँ बहुत, कोई लैला नज़र नहीं आती
हमने मजनूँ तो फिर भी देखे हैं, इश्क़ के ख़ुदाओं में

कुबूल है हर इल्ज़ाम तेरा, मगर तू छोड़ के क्यूँ चला गया
बस यही जवाब ढ़ुँढ़ता हुँ, मैं तेरे सब सवालों में


तारीख: 07.07.2017                                    प्रमोद राजपुत









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