बनी उल्फ़त मेरी चाहत जो मैंने की नहीं होती

 

बनी उल्फ़त मेरी चाहत जो मैंने की नहीं होती,
निगाहें शौख़ से जो वो शरारत की नहीं होती,

युहीं फ़ुरसत से हम भी रात भर को चैन से सोते,
तुझे सिद्दत से ग़र हमने मोहब्बत की नहीं होती,

नशा होता न हमको ये सितमगर इश्क़ का वाला,
शराबे ये मोहब्बत ग़र जो हमने पी नहीं होती।

है कितना इश्क़ तुमसे मैं ये दुनियां को बता देता,
क़सम चुप रहने की हमसे जो तुमने ली नहीं होती।

मेरी इस ज़िंदगी से मुझको यूँ फिर इश्क़ न होता,
जो छावों में तेरी जुल्फों की हमने ज़ी नहीं होती।

मेरे घर में जो रौंनक है कभी वो आ नहीं पाती,
मोहब्बत की ये सौगाते जो तुमने दी नहीं होती।


तारीख: 14.06.2017                                    विजय यादव









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है