क्या ग़म का पैमाना रख्खा
घर में ही मयखाना रख्खा
उसकी शक्ल से भी थी नफरत
पर गली में आना जाना रख्खा
दर्द बेसबब था जिदंगी में
महौल फिर भी अशिकाना रख्खा
वो हमेशा अकेला ही रहा
कदमों में जिसने जमाना रख्खा
ना नींद आई फिर से रात भर
ना "बेचैन" ने बिछौना रख्खा