नहीं चाहा निकलना इस गुमाँ से
किया है इश्क़ मैंने इस जहां से ।
कोई समझे न पागल मुझको यारो
हमेशा ही डरा हाले बयाँ से ।
लगाई आग किसने मजहबों में
धुंआ उठने लगा मेरे जहां से ।
किया खामोश जो इज़हार अब तक
अभी तो बोल दे अपनी जुबाँ से ।
कभी समझी नहीं ये बात धरती
मिलन होता नही है आस्मां से।
नज़र तुझसे मिली थी जिस जगह पर
गुजरता रोज हूँ मैं अब वहाँ से ।
नज़र महफ़िल में सबकी है रिशु पर
निकल आया हूँ जैसे कहकशाँ से ।