कोई ले गया रँगीनियाँ अबके बहार से
हम बेकार में खफ़ा रहे,गुले गुलज़ार से
उसने करम किया भी, तो किश्तों में मेरे साथ
मुझ पर नज़र भी डाली,तो तिरछी निगाह से
कुछ काम भी कर लेते, हम इस राहे ज़िस्त में
हमें फ़ुर्सत मिली कहाँ, तेरे इंतिज़ार से
आने का अहद कर के भी, न आये गली में वो
हम झांकते हीं रह गये, दरोदिवार से
मंज़िल थी अगले मोड़ पे,जब तुम हाथ छोड़ गये
मैं कैसे गिला करुँ भला, परवरदिगार से
ऐसा भी क्या गुरुर,जो उन्हें आने से रोक ले
हाल मेरा वो पुछते हैं, मेरे ग़मगुसार से
करते हैं सख़्त और भी,वो गिरह-ए-ज़ुल्फ़ को
फिर पुछते हैं कैसे हो, नौगिरिफ़्तार से
वो भी क्या दिन थे, सारी दुनिया में नाम था
किसी ने हाल भी न पुछा, कल गुजरे बजार से
उस्ताद-ए-लेखनी में,हो जाते शुमार हम भी
गर दो पल सुकुँ के पाते, ग़मे रोज़गार से