सबक ज़िंदगी का

माना कि, सफर बेइंतिहा है मुश्किल, और ये जानता हूँ मैं,
कुछ भी बस नहीं है तेरा, इन हालात पे,ये भी मानता हूँ मैं,

पर जो अलामात हैं तेरे, तुझ पे कुछ, जमता नहीं, ऐतबार,
यूँ तेरे इस ज़ज़्बे की संजीदगी को तो खूब पहचानता हूँ मैं,

चाहिए इक बड़ा जिगरा बुलंद हौंसला यकीं खुद पे बेइतिहां,
तो समझ इसी लिए इन गलियों की ख़ाक, यूँ छानता हूँ मैं,  
     
इस मुंह पे गर्द, कपड़ों पे मेरे दाग,लगने ही है, इस काम में,
बनाने को दिया, मिटटी का, मिटटी में,ये हाथ सानता हूँ मैं,

बहुत कह दिया मैंने और बहुत सुन भी लिया तूने, मगर ये,
जान ले कि दीवानगी और जनूँ को,अपना खुदा मानता हूँ मैं  
      
माना कि, सफर बेइंतिहा है, मुश्किल, और ये, जानता हूँ मैं,
कुछ भी, बस नहीं है तेरा, इन हालात पे, ये भी मानता हूँ मैं !! 


तारीख: 17.06.2017                                    राज भंडारी




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है