झूठा दबदबा

झूठा दबदबा झूठा रुआब लिए फिरता है
वो फसादी है नया टकराव लिए फिरता है

भला समंदर भी किसी ने उलीचा है कभी
 मन मे फालतू के सवाल लिए फिरता है

शहर के हाकिमों को मयस्सर नही है और
चमन का मुहाफिज गुलाब लिए फिरता है

बांटने वाले बांट रहे हैं नफरतों के पर्चे मगर
एक काफिर प्यार का पैगाम लिए फिरता है

हक की आवाज फलक से आयेगी जरूर
अब हर आदमी यही ख्याल लिए फिरता है

यहाँ न जिस्म है न साया बाकी है "आलम"
क्यों इन मंजारों पर चराग लिए फिरता है


तारीख: 14.02.2024                                    मारूफ आलम









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