भट्टे की नज़र

 

(१)
सिमरा गांव के पास वाले ईंट भट्टे पर,
जहाँ सूरज आग उगलता है
और आसमान धुएँ से भूरा रहता है,
गनौरी ईंट पाथती नहीं, अपना नसीब पाथती है।

उसके हाथ खुरदुरे हो गए हैं
गीली मिट्टी को थापते-थापते,
और उसकी कमर झुक गई है
कच्ची ईंटों का बोझ उठाते-उठाते।

धूप उसकी चमड़ी को जलाती है
पर पेट की आग, धूप की आग से ज़्यादा तेज़ है।

(२)
भट्टे से थोड़ी दूर, एक फटे हुए बोरे पर
उसका २ साल का बेटा लेटा है, रेत में।
वो रो रहा है, शायद भूख से, या शायद तपती ज़मीन से।
गनौरी सुनती है,
हर बार जब वो रोता है, तो ईंट उठाते उसके हाथ काँप जाते हैं।
पर वो रुक नहीं सकती।
गिनती से ईंट उठाएगी तो गिनती से पैसे मिलेंगे।

(३)
ठेकेदार पेड़ की छाँव में, एक टूटी कुर्सी पर बैठा है
वह ईंटें नहीं गिन रहा
वो गिनती भूल गया है।

उसकी नज़र टिकी है, गनौरी पर
उसके झुके हुए बदन पर ,
उसकी  पसीने से लथपथ कमर पर,


उसकी नज़र टिकी है
गनौरी के पुराने, घिसे हुए ब्लाउज के,
उस एक टूटे बटन पर।


(४)
गनौरी को पता है कि वो उसे देख रहा है
उसने उसकी तरफ देखा नहीं, पर औरतें नज़रें पढ़ लेती हैं।
उसका जी घिनाता है
पर वो कुछ कह नहीं सकती।

वो बस चुपचाप अपना पल्लू थोड़ा और आगे खींच लेती है,
और ईंटो को गिनती जारी रखती है।

उधर बच्चा और ज़ोर से रोने लगता है,
शायद उसे दूध पिलाने का समय हो रहा है
इधर ठेकेदार की आँखों की चमक और बढ़ जाती है।
और भट्ठी से उठता धुआँ
सब कुछ अपनी चादर में लपेट लेता है।
 


तारीख: 09.06.2025                                    मुसाफ़िर




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है