इतनी लड़ाइयों के बाद
क्या अब कोई प्रेम बचा है हमारे बीच
या हम बस साथ रहने का
एक दिखावा जी रहे हैं?
सुबह की चाय में
चीनी की जगह
शिकायत घुलने लगी है,
और बिस्तर के दो सिरों पर
खिंची रहती है एक अदृश्य रेखा।
तुम्हारे होंठों की हँसी में
अब वो छलकता प्रेम नहीं दिखता,
और मेरी आँखों में
वो ज्वार नहीं उठता
जो कभी तुम्हें देखकर
अनायास उमड़ पड़ता था।
एक ही छत के नीचे
साँस लेते दो अजनबी,
मुस्कुराहटें थकी हुई,
नज़रें चुराती हुईं।
क्या हमारे बीच
अब प्रेम है या आदत?
या फिर एक समझौता,
जिसे निभा रहे हैं
किसी अनदेखे दबाव में?
पर कभी-कभी
किसी पुराने गीत की तरह
याद आ जाती है
वो हँसी, वो छुअन, वो झगड़ा,
जो हमारे प्रेम को
परिभाषित करता था।
और फिर
हम थोड़ा मुस्कुराते हैं,
शायद यही सोचकर
कि प्रेम खत्म नहीं हुआ—
बस कहीं दब गया है
हमारी ईगो और ग़ुस्से के बीच।