मैंने इज़ाद किया
एक शब्द
झट से वो बड़ा हो गया
मेरे सामने खड़ा हो गया
वाक्यों में इस्तेमाल किये जाने का
उसने हक़ मांग लिया
कोशिश करने लगा वो घुसने की
मेरे हर गजलों में,कविताओं में
काश मिटा देता मैं उसे नवजात ही
जाया होती कुछ और स्याही
उसके उन नन्हे हाथों को तोड़ देता मैं
जिन हाथों से वो तोड़ रहा है
पनाह की कोशिश में
मेरे छंदों के महल को
पैदाइश मेरी,गिड़गिड़ा नही रहा
तोड़ रहा है,आक्रोश में
वो हाथ डाल रहा है
आपने विधाता के गिरेबान पर
बागी तेवर लिए वो बोल रहा है
फिर से लिखो जो तुमने बंद किया है
कविताएँ, ग़ज़लें या कोई नज़्म
लिखोगे तो मैं ढूंढ लूंगा अपनी पनाह
कविताओं के निर्माण में
कोई पत्थर बन जाऊंगा
तुम्हारे निर्जीव कलम की
आत्मा बन जाऊँगा
कोई भी शब्द लिखेगो तो
लिखा जाऊँगा मैं,सिर्फ मैं
और इस बार विधाता बनूँगा
मैं खुद का और तुम्हारे
फिर से लिखने का।
बोलकर इतना वो रो पड़ा
वो इंसान नहीं था
शब्द था
मैं इंसान तो था पर
निःशब्द था।