(१)
पटना एम्स की ओपीडी वाली बिल्डिंग के बाहर
रात गहरी हो चली है।
सोमू ने एक पुरानी, मैली चादर ज़मीन पर बिछाई है,
उसी पर सिमटी हुई लेटी है उसकी गर्भवती बीवी, सिमारिया।
पास में सो रही हैं उनकी दो बेटियाँ,
छोटकी और बड़की, एक-दूसरे से लिपटकर।
सोमू को नींद नहीं आ रही
उसकी नज़रें आसमान में तारे नहीं,
अस्पताल की ऊँची, ख़ामोश दीवारों को देख रही हैं।
उसे सुबह पाँच बजे लाइन में लगना है
पर्चा जमा करना है, ताकि शाम तक शायद डॉक्टर का नंबर आ जाए।
(२)
सोमू अपनी सोती हुई बेटियों को देखता है
फिर करवट बदलता है
उसके अंदर एक हसरत है, जो हर करवट के साथ और गहरी हो जाती है,
"इस बार बस एक बेटा हो जाए... तो सब ठीक हो जाएगा।"
उसे लगता है कि बेटे के बिना उसका बंस अधूरा है।
(३)
उधर सिमारिया की आँखें भी खुली हैं
वो छत को नहीं, अँधेरे को घूर रही है
और अँधेरे में एक बेटे का चेहरा ढूँढ रही है।
उसका सपना हसरत से नहीं, डर से जन्मा है।
वो फिर से सोमू की मार नहीं खाना चाहती
वो चाहती है कि इस बार उसकी सास गाँव में लड्डू बँटवाए
और उसकी गोतनी, जिसके दो बेटे हैं,
उसे फिर से साल भर ताना न मारे
(४)
एक ही चादर पर, अगल-बगल लेटे
सोमू और सिमारिया, दोनों जाग रहे हैं।
दोनों एक ही सपना देख रहे हैं - एक बेटे का।
और उनके बीच, सिमारिया के पेट में पल रहा बच्चा,
इन दोनों ख़ामोश सपनों का बोझ लिए
सुबह होने का इंतज़ार कर रहा है।