हस्ती उसकी हमीं सी है

हो नित उदित,
होने को अस्त कहीं कहीं ,
लुटाने को अपना सर्वस्व,
खोने को कुछ कहीं,
कर दीप्त जग को
अंत ही जो पाता है
देखकर वो रक्तिम रवि,
ख्याल कुछ आता है
कि हस्ती उसकी हमीं सी है
सीने में समाए शैलाब,
पर चाल लगती थमी सी है ।                 


तारीख: 06.06.2017                                    जय कुमार मिश्रा









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