जो मेरे ख़्वाबों में है, वो बादलों में छिपी शकल-सी है।
देख के भी अंजान है, ज़िंदगी क्यों बद्-अकल-सी है।।
काश कि वो एक साफ सी तस्वीर होती,
जिसे देख मेरा दिल सँवर जाता,
या खाली से चित्रपटल की तरह,
जिसे ज़िंदगी के रंगों से भर पाता।
उसका ख़याली साथ सोच के भी, ज़िंदगी लगती सफल-सी है।
जान के भी अंजान है, ज़िंदगी क्यों बद्-अकल-सी है।।
सातों पहर उसकी एक झलक की आरज़ू है,
तमन्ना-ए-दीदार गहरी-सी है,
दिल ख़ामोश, दिमाग ख़फा,
रूह चुप, साँस ठहरी-सी है।
उसके साथ दिन लगते गीत, और शामें ग़ज़ल-सी हैं।
सुन के भी अंजान है, ज़िंदगी क्यों बद्-अकल-सी है।।
आखिर वज़ह क्या है इस बेरुखी़ की?
शायद तुझे हुस्न का ग़ुरुर है,
पर इतना दावा है मेरी हूर-ए-ख़्वाब,
कि तेरे दिल में भी छाया मेरा सुरुर है।
सुना है ख़यालों में तू भी, करती मेरी नकल-सी है।
समझ के भी अंजान है, ज़िंदगी क्यों बद्-अकल-सी है।।