जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर

जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर ,
तो कुछ पूछने लगा मुझसे एक एक मंजर 
कुछ कहने लगी परती पड़ी भूमि बंजर....
जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर....


घर तक जाती घुमावदार पगडँडी ने पहचान लिया
मुझे मेरी आहों से.....
गलियाँ भी देखने लगी मुझे 
जानी पहचानी निगाहों से ......


परिचय पाकर माटी का मेरा पाँव 
माटी को चूमने लगा ,
कर स्पर्श अपनेपन की हवा का 
मेरा रोम रोम हर्ष के उन्माद में झूमने लगा....


बुजूर्ग बरगद ने , पास के पीपल ने,
आँगन के नीम ने ,कोने के अमरूद ने . .
मेरा हिलमिलकर अभिवादन किया ,
अपने पर्ण कर अर्पण मेरा अभिनन्दन किया....


दरवाजे तो घर के ऐसे खुल रहे थे मानों
दोंनो बाँहे फैलाए इन्तजार कर रहें हो किसी का ...
हवा के झोंके सा मैं पूरे घर में घूम गया ,
कभी किसी कोठे में कभी किसी कमरें में गुम गया ....


ऐसी ढ़ेर सारी बिखरी हुई यादें थी घर में मेरे लिए ,
अपने दिल में संजोने के लिए ...मगर...
मगर घर था मेरा सूनापन लिए ..निचाट खालीपन लिए...
घर जो आबाद था हम चार बच्चों की किलकारियों से 
हमे विदा कर बारी बारी से देहरी अकेली ही है 
दरवाजे पर ...


जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर.....
बस आँगन गवाह है हमारी शादी के मंगल अवसर का 
पुकार रहा है वो चौक जहँ खेलते थे आँख मिचोली ,
 वहाँ कभी खुद को देखता हूँ कभी दिखते हैं हमजोली....


बार बार लाँघे जाने वाली देहरी 
आज अभागन हो गई....किराये की चौखट सुहागन हो गई..
अब तो आईने के पास की दीवार भी विधवा हो गई
बरसों ये नहीं लगाई उसने बिंदिया ना काजल का टीका ,
रंग भी उसका पड़ गया एकदम फीका....


जो सजती थी कभी दिन में दो बार दुल्हन के सजने पर ...
जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर.....
उखड़े हुए पलस्तर वाली दीवारों ने ,
चीखकर पूछा मुझसे मेरे अधिकारों ने..
कहाँ खो गया था मैं आधुनिकता के सैलाब में ....
निशब्द हो गया मैं सच में इसके जवाब में ....
जाना पड़ा हम भाईयों को गाँव ये शहर 
चल पड़ा कारोबार ,जँच गया व्यापार...मगर ...
मगर छूट गया पीछे मेरे बचपन का घर...
जब मैं गया लौटकर मेरे बचपन के घर...


वो पिता ही थे जिसने बाँधे रखा था इस घर को 
घर का आधार ही उठ गया उस दिन 
जिस दिन उठाया उनको चार कंधों पर ...
हालांकि माँ है अभी दीया जलाने के लिए 
उस घर में मगर ...उसके बाद. .
उसके बाद ना चिराग होगा ना चिराग जलाने की बात होगी ,
मेरे बचपन के घर में सिर्फ रात ही रात होगी ..सिर्फ रात ही रात...
सच है....


सच है जहाँ खालीपन हो वहाँ सन्नाटे ही बसते हैं ,
आँगन तो बच्चो की किलकारी से ही सजते हैं ।
ईंट पत्थरों से तो हमने मकानो के साँचे बनाए होंगे ,
घर और दिल तो अपनों की आबादी से ही जचते हैं ।।
 


तारीख: 12.08.2017                                     मनोज कुमार सामरिया -मनु









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