काश, आंखों के पानी से फसलें लहलहा उठतीं
किसान इसी पानी से हर बरस धनवान हुए जाते हैं
मौला, किसान के बच्चों को भूख ना बख्शा कर
कि आइने इन्हें जिंदा देख कर पशेमान हुए जाते हैं
बेटी विदा ना हो पायेगी, बेमौसम जो गिरा पानी
कहीं, बारिश में पकोङों से खुश मेहमान हुऐ जाते हैं
कपास रो पङी इक रोज रस्सी बनने को जाते
कि फांसी और किसान तो अब इकनाम हुऐ जातेे हैं
मानसून किसी बरस तो तूं भी जरा मासूम बन
देख कैसे मासूम किसान के आंसूं हैरान हूऐ जाते हैं
ख्वाब इस बावरे के देख के रो पड़ता हूँ अक्सर
ये फिर फिर राख से उठता है, ये श्मसान हुऐ जाते हैं