पाश्चात्य और पौर्वात्य का घिनौना मेल चल रहा
कहीं रजनी कहीं दिवा ये कैसा खेल चल रहा।
भूलकर राष्ट्रजीवन सूत्र, ये जीवन तंग हो रहा
अब ये जीवन का प्रवाह गंगा सा मंद हो रहा।
राजनीतिक आजादी मिली पर ये देश जल रहा
अर्थ का अभाव और प्रभाव मे विद्वेष पल रहा।
पुंजीवाद-साम्यवाद का विष कुछ यूं मिल गया
नक्सलवाद दे हमें पाश्चात्य का चेहरा खिल गया।
विकास की आंधी का तमाशा फीका पड़ गया
प्रकृति जीतने चले सबलतम जिंदा रह गया।
हिमालय की चढाई तो एवरेस्ट फतह तुम्हारी है
जाते हम भी हैं वहां पर तपस्या वजह हमारी है।
पाश्चात्य के इस गुटयुद्ध को अब जीत जाना है
पुंजीवाद-साम्यवाद अब दोनो से मुक्ति पाना है।
बढाओ हाथ अपना आज हर इक इंसान के लिये
आजादी हमने पायी है तो मानववाद लाना है।