क्या करूँ ?

क्या करूँ ?

इस कोलाहल में साझीदार बनूँ
जहाँ सभी चिल्ला रहे हैं
वहां मैं भी आवाज़ करूँ ?

जिस ओर सब भाग रहे
उसी ओर मैं भी भाग चलूँ
सुवर्ण-धन की चाह पालूँ
कमनीय काया की कामना करूँ ?

या

दौड़ छोड़कर अब ठहर जाऊं
पंख समेटकर अपने अक्स में सिमट जाऊं
शिव बनकर, विष पीकर,
बस, मौन हो जाऊं ?

सृष्टि छोड़कर, साक्षी हो जाऊं
दृश्य छोड़कर, दृष्टा हो जाऊं
इस देह से प्राण खींचकर
विराट चेतना में विलीन हो जाऊं ?


तारीख: 14.03.2025                                    शीलव्रत पटेरिया




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