क्या करूँ ?
इस कोलाहल में साझीदार बनूँ
जहाँ सभी चिल्ला रहे हैं
वहां मैं भी आवाज़ करूँ ?
जिस ओर सब भाग रहे
उसी ओर मैं भी भाग चलूँ
सुवर्ण-धन की चाह पालूँ
कमनीय काया की कामना करूँ ?
या
दौड़ छोड़कर अब ठहर जाऊं
पंख समेटकर अपने अक्स में सिमट जाऊं
शिव बनकर, विष पीकर,
बस, मौन हो जाऊं ?
सृष्टि छोड़कर, साक्षी हो जाऊं
दृश्य छोड़कर, दृष्टा हो जाऊं
इस देह से प्राण खींचकर
विराट चेतना में विलीन हो जाऊं ?