शब्दों के झंकार में
मौत की आहट सुनकर
घबराकर जागता हूँ
नींद से
सबकुछ छुट रहा है
हरपल
बाहर निकल आता हूँ
दूर तक क्षितीज में
निहारता हूँ
और सोचता हूँ
मैं किसी सपने में हूँ
या कहीं और
अपने जीवित होने में ही
मुझे संदेह होता है
अपनी छाती में छामकर
निश्चिंत होता हूँ
धड़क तो रहा है
भीतर कुछ
क्षीतिज में उजाले का
रमझम देखकर
सोचता हूँ
यह भोर की आगाज है
या शाम की।