पिता — एक मौन वृक्ष

घर के सबसे कोने में खड़ा
एक पेड़ है—
जिसकी छाँव सबको मिलती है,
पर किसी ने उसके पत्तों की थकान नहीं देखी।


वो जो सुबह से पहले उठता है
और रात के सबसे पीछे लौटता है,
जो दूध के गिलास में,
अपनी नींदें घोल देता है।


जिसकी पैंट की सलवटों में,
घर की किश्तें दबी हैं,
और जेब में बच्चों की फीस की रसीदें
फटे हुए सपनों की तरह मरोड़ी हुई।


वो बोलता कम है,
पर आँखों में कई भाषाओं की चुप्पियाँ हैं,
हर शिकन—
एक अधूरी ख्वाहिश की सिलवट।


पिता...
वो जो कभी थकता नहीं,
पर जो सबसे पहले थक चुका होता है।
 


तारीख: 11.08.2025                                    मुसाफ़िर




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है