रावण

चैतन्यता के शिखर पर
संहार कर हर कल्पना
अवशेष में बस छोड दे
अपनी भुजाओं के निशाँ !

आशाअों के चिंताओं के
हिमखंड ये जलमग्न हों
चुन-चन के अगणित वार कर
सत्ता मेरी यह भग्न हो !

नख को मिला दे शिखा से
कर देव अस्त्रों के प्रहार
स्वपनों के रक्तिम पटल पर
तू मचा भीषण हाहाकार !

अग्नि जला दे सुखा,
मेरे अश्रुओं के ग्रह अनंत
रुख मोड वायु का अभी
ले जा घटाओं को दिगन्त !


तू है भयंकर काल,काली
दीप मेरा बुझा दे
बन लूँ तेरा पर्यायमुझको
मौत की तू सजा दे !

तूफान सी तू चमक,
बन बैठूँ मैं उसकी शान्ति
हैं नियम, जर्जर जाग्रति
ला तामसी की क्राँति!

होने दे अट्टाहास को
प्रतिध्वनित मेरे देह में
जगती के दुख के चक्र को
तू मोड दे संन्देह में !

मन्दिर पडा खण्डहर बना
इस छड ही जीर्णोधार कर
नि:शब्द हो मस्तिष्क ये
धुन छोड मुझ पर वार कर !! 


तारीख: 10.06.2017                                    पुष्पेंद्र पाठक









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