कभी कभी ख़ुद को ढूंढ लेती हूँ इन गहराइयों में,
थोड़ी थोड़ी मिलती हूँ ग़ालिब की शायरियों में,
साहिर के रूहाने शायरे अंदाज़ में,
अमृता की बारिकता में सच्चे प्यार में,
टैगोर की रचनाओं में !
बहुत दूर चली जाती हूँ कभी खुद से,
यूँ मानो कुछ समय लगता है लेकिन मिल ही जाती हूँ ख़ुद को ख़ुद से,
ख़ुद से दूर जाऊंगी भी कहाँ,
ख़ुद को थोड़ा थोड़ा मिलती हूँ खुद के भय में,
ख़ुद की बातों में,
दोस्तों के इरादों में,
कभी पढ़ी लिखी किताबो में,
कभी न पढ़ी बातों में,
पिंजरे में कैद उस चिड़िया में,
पिंजरे से बहार उस दुनिया में,
थोड़ा सा बाहर जाती हूँ और बिना जाने लौट आती हूँ,
शायद उस पिंजरे की आदत में भी हूँ मैं,
हर एक फरेब में,
वो उस दिन कही दिल दुखा देने वाली बात में ,
मेरे सच्चाइयों में,
मन की उस अचंभित गहरी मीठी गहराईयों में,
मेरे अतीत में, कभी भविष्य की सोच में
लेकिन हमेशा अच्छाई खुशनसीबी में मिलूं 'या इलाही' ये मुमकिन ही कहा है !
कभी कभी मिल भी जाती हूँ
मेरी कमियों में मेरी बुराइयों में,
मेरे टूटे फूटे अभिमान से भरे अभिमान में,
कभी वो ख़ामोश रूह की उदासीनता में,
रूठ कर ख़ुद को झट से मना लेने वाली उस बात में,
कभी कभी यूँ ही सुबह आईने के सामने ख़ुद को मिलती हूँ ख़ुद की आँखों में,
कभी सोचती हूँ मैं हूँ कौन ये आंखे ये बातें,
मेरी हर कही बात, ये रिश्ते, ये रिश्तों से भरी चाह
शायद सभी तो हूँ मैं,
मैं पूरी हूँ ही नहीं अपने पास सबमे थोड़ी थोड़ी सी बसी हूँ,
सबको थोड़ी थोड़ी सी मिली हूँ,
लेकिन मैं मिलती हूँ वहाँ वो धार्मिक किताबों में
वो रूमी की पंक्तियों में, बातों में,
प्रेमचंद की साधारणता में,
कभी कभी मेरे पसंदीदा खाने में,
मेरी लिखी न लिखी कविताओं में,
मेरे काम की श्रमताओं में,
मेरी माथे की सिलवटों में,
मेरे होठों पर हसी लाये हर एक महसूस किये अंदाज़ में,
मेरे मर मिटने वाले गानो में,
कुछ रिश्तों में,
कुछ अंजानो में,
ब्राह्म की हर एक बात में ज़िक्र होता है मेरा,
मैं संपूर्ण हूँ अपने आप में,
मैं महत्वपूर्ण हूँ अपने आप में,
नदियों की ख़ामोशी में,
हवाओ की तेज़ी में,
मेरी माँ की लगाई हर उस डांट फटकार में,
मेरे हर गीत में,