थोड़ा सा आकाश

थोड़ा सा आकाश   तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा 
विस्तृत सा अहसास  तुम्हे ना दे पाया तो क्या दूँगा |
चुनते-चुनते थक जाऊँगा बिखरी-बिखरी सीपों को 
सागर सा विश्वास,  तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||


छुटपन में भी ललचाते थे,आज भी वे ललचाते हैं 
कितना भी ऊँचा हो लूं पर तारे हाथ ना आते हैं  |
चमकीला सा दिन हाथ में आते आते फिसल गया
टिम-टिम करती रात, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||
 
धरती को संपन्न बनाने      दूर गगन से मोती झरते
नर-वनचर सब भाग-दौड़कर, अपनी-अपनी जेबें भरते |
क्युं ना हम भी भरे खजाना, बाँह फैलाए, गगन निहारे 
ये सदियों की प्यास, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||
 
बरसों पहले जीवन की कवितायें छोड़ गया कोई 
किन्तु जाते-जाते अपना सांचा तोड़ गया कोई |
अब तक संभाले हैं पर कुछ गीत पुराने मैनें भी 
बस वो ही मेरे पास, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||    

 


तारीख: 20.10.2017                                    ठाकुर विकल्प सिंह









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