थोड़ा सा आकाश तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा
विस्तृत सा अहसास तुम्हे ना दे पाया तो क्या दूँगा |
चुनते-चुनते थक जाऊँगा बिखरी-बिखरी सीपों को
सागर सा विश्वास, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||
छुटपन में भी ललचाते थे,आज भी वे ललचाते हैं
कितना भी ऊँचा हो लूं पर तारे हाथ ना आते हैं |
चमकीला सा दिन हाथ में आते आते फिसल गया
टिम-टिम करती रात, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||
धरती को संपन्न बनाने दूर गगन से मोती झरते
नर-वनचर सब भाग-दौड़कर, अपनी-अपनी जेबें भरते |
क्युं ना हम भी भरे खजाना, बाँह फैलाए, गगन निहारे
ये सदियों की प्यास, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||
बरसों पहले जीवन की कवितायें छोड़ गया कोई
किन्तु जाते-जाते अपना सांचा तोड़ गया कोई |
अब तक संभाले हैं पर कुछ गीत पुराने मैनें भी
बस वो ही मेरे पास, तुम्हें ना दे पाया तो क्या दूँगा ||