एक वृक्ष अपनी काया पर खूब इतरा रहा था,
हजारों हाथों से अपनी छाया और माया लुटा रहा था।
अपनी छाया और माया पर उसे कहां गुमान था,
कटने जा रहा था उसे कहां भान था।।
क्यों कट रहा था उसका क्या कसूर था,
कसूर बस इतना था कि वह गांव से दूर था।।
भूल से शहर के बंगले में रुप गया था,
यही तो बंगले के मालिक को चुभ गया था।।
आदेश मिलते ही वृक्ष झट से कट गया,
छाया और माया का नामो निशान मिट गया।
जो बच गया था वह मुर्दों में बट गया।।
बंगले वालों को कहां वृक्ष की दरकार है,
उनको तो बस कीमती बंगले से प्यार है।
नहीं जानते उन्होंने क्या खो दिया,
अपनी दुर्गति का बीज खुद व खुद बो दिया।।