वक्त की गर्दिशें


वक्त की गर्दिशें मिटा देती है अल्फ़ाज सारे ,
 कौन याद रखता है पुराने पन्नों को
 नई किताब मिलने पर..
सपने अधूरे ही रह जाते हैं आँखों में
चन्द नये ख्बाब दिखने पर ..


इन्सान की फितरत है 
मौसम की मानिंद खुद को बदलने की 
भूला देता है पुरानी ड़गर 
अक्सर नयी राह मिलने पर ..
कौन याद रखता है उस उँगली को 
जिसने चलना सिखाया ,चलना सीखने पर...


लड़ता रहा था अंधकार से 
अकेला रात भर 
नजरअंदाज कर देते है उस चिराग को
 पूनम का चाँद दिखने पर ...
इतिहास का भी अपना वजूद है 
दोहरा देता है अक्सर खुद को 
संभल कर चलना आज की ड़गर पर ..


मोहरे हैं हम तो परवरदिगार के ,
क्या खबर खेल कब उठ जाए 
शतरंज की बिसात पर ..
चलना सोचकर चाल 
संयम रखना गुस्से और जज्बात पर ..
मैं तो खुद मजबूर हूँ 
वश चलता कहाँ है ख्यालात पर ..
हर बार चोट खाकर 
बस पछताता हूँ अपने हालात पर..। ।
             अपने हालात पर ..। 
 


तारीख: 21.10.2017                                     मनोज कुमार सामरिया -मनु









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