यह सागर कितना प्यासा है

जिसको  जितना मिलता  रत्न
और अधिक  का  करता  यत्न,
अगणित नद पीकर सागर  की
बुझती     नहीं    पिपासा     है।
यह  सागर  कितना  प्यासा  है।

मिला न जग को अबतक  तोष
विभव, रत्न  हो  या  मणिकोष,
बाहर  की  सुषमा  अनन्त   पर
अंदर    अमित     हताशा     है।
यह  सागर  कितना  प्यासा  है।

शमित  न  होता उर  का  ज्वार
अंतर्मन     में     तृषा     अपार,
उड़ने   को   ले   पंख  गगन में
खड़ी    सदा    अभिलाषा   है।
यह  सागर  कितना  प्यासा है।


तारीख: 23.09.2019                                    अनिल कुमार मिश्र









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है